कविता : ऐ जिन्दगी तू सहज या दुर्गम..

सही कहती थी अम्मा(मेरीमां)..
यूं बात-बात पर गुस्सा ठीक नहीं,
इक दिन तो बढनी से पीटा गया ..
अपनी मर्जी से जिन्दगी नहीं चलती,
झुकना और सहना पडता है..
ये जिम्मेदारन है, मजबूरन नहीं..
समझदारी है,कमजोरी नही
बाहर निकलोगे तब पता चलेगा,
दुनिया कैसी है..? ओर जिन्दगी क्या है?
कहीं ठौर नहीं मिलेगा ऐसी करनी पर..
तुम हमेशा सही कैसे रह सकते हो
और दूसरा गलत..
तुझे ग्लानि नहीं होती अपनी गलतियों पर
कि तू झांकता ही नही अपने अन्दर…
पानी की तरह रहो, पत्थर की तरह अकडे मत रहो..
सीख नहीं पावोगे जिन्दगी में..,
धीरे चलो पर चलते रहो..
प्यार बांटोगे तो प्यार मिलेगा..
सरल होने पर चीजें सरल लगती हैं ,
क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम रटा दिया चन्द छणों में।
सहज ही नहीं दुर्गम भी है ऎ जिन्दगी..
कुछ सपने लिए इन आंखों में
उम्मीद-ए-चिराग जलाये हुए,
अब निकल पडे जीवन पथ पर
जीवन उद्देश्य निभाने को…
कहीं काली सडक, कहीं पथरीली राहें
तो कहीं रेतों का समन्दर मिला..
कभी खूबसूरती का लिबाश ओढ आयी जिन्दगी
तो कभी खौफनाक दर्द मिला..

बहु लोग मिले, बहु प्यार मिला।
सुख-दुख से भरा संसार मिला।
कभी मैं उसका (जिन्दगी का) तो कभी वो मेरी लगी,।
कभी दिन ही दिन तो कभी खाली रात लगी..।।
फूलों के साथ-साथ हमने,
कांटों से भी दोस्ती कर ली..
पर ये सवाल आता रहा,
जहन मे हरदम…
ए जिन्दगी, तू सहज
या दुर्गम..

-श्याम नन्दन पाण्डेय
मनकापुर, गोण्डा, उत्तर प्रदेश

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