अंतिम विदाई – अमित पाठक शाकद्वीपीय

कुछ खामोशियां अचानक से शोर हो गई,
आज मुहल्ले में जल्दी ही भोर हो गईं,
आज अंतिम विदाई थी मेरी,
थी सांसों की डोर खो गई।
बड़े अदब से आज व्यवहार हो रहा था,
अर्थी , पुष्प, पीतांबरी सब तैयार हो रहा था,
कुछ अपने धर कर हाथ पैर मेरा चीत्कार कर रहे थे,
“क्यूं छोड़ कर चले गए” ऐसा पुकार हो रहा था।
कुछ लोग चल पड़े थे लकड़ियां जुटाने,
कुछ लोग गए फ़िर डोम , पंडित जी और हजाम को बुलाने,
कुछ लेप चंदन का, कुछ तुलसी के पत्ते रख कर,
नए वस्त्र से मेरा अलंकार हो रहा रहा था।
चार कंधो पर कर के बारी बारी ,
नदी के एक तट पर रुकी भीड़ सारी,
नदी के उसी तट पर कुछ मंत्रोचार हो रहा था,
जानते हो क्या था?, पिण्ड दान का संस्कार हो रहा था।
सहसा ही मुझे लाद कर एक ऊंचे आसन पर लिटाया,
एक एक कर कई लकड़ियों से सजाया,
परिजन बैठे थे रेत पर
अंतेष्ठि के मुहूर्त पर कुछ विचार हो रहा था।
निर्णय से सबके फिर वह भी समय आया,
डोम ने अग्नि जलाई, हज्जाम बाल बनाया,
सब रो रहे थे मगर मुझको आनन्द आया
क्योंकि जीवन भर गालियां तानें देने वालों को भी वहीं पाया।
सबने की प्रदक्षिणा और मुखाग्नि लगाया,
पल भर में ही मैं दिव्य अग्नि में समाया।
जल से स्नान तो करते हैं सभी नित्य ही,
आज क्या ही दिन था मैं आग से नहाया ,
प्रभु में खुद को पाया।
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अमित पाठक शाकद्वीपीय