आलेख : कवि, कविता और पाठक – प्रकाश प्रियम

यूँ तो अनेक आलोचक रचनाकारों मम्मट, कविराज जगन्नाथ, भामह, वामन आदि ने अपने-अपने मतानुसार काव्य की अलग-अलग परिभाषाएँ सिद्ध की हैं। किंतु यहाँ पर आचार्य विश्वनाथ की उक्ति का उद्धरण इसलिए ले रहा हूँ क्योंकि सभी आलोचक विद्वानों ने इसी परिभाषा को एकमत से सर्वाधिक प्रामाणिक माना है। उन्होंने काव्य की ख़ूबियों को परिभाषित करते हुए लिखा- ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’। इस पँक्ति से तात्पर्य है कि रसयुक्त काव्य (रचना) वास्तविक काव्य के अंतर्गत आता है। वास्तव में बिना रस के काव्य रचना वैसी ही है जैसे कोई नई नवेली दुल्हन आभूषणों से विहीन हो। आभूषण स्त्री की शोभा हैं। गोया आकाश में तारों की अनंत मेखला को छोड़कर सबकी नज़र को चंद्रमा बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है, वैसे ही आभूषणों से सुसज्जित स्त्री अन्य आभूषणविहीन स्त्रियों को दरकिनार करते हुए लोगों की नज़र अपनी ओर खींच ही लेती है। काव्य में रस भी वैसा प्रभुत्व रखता है।
काव्य में रस स्त्री के आभूषणों के सदृश होता है, जो सहृदय पाठक को अपने में बलात् डुबोए रखता है। अब ये पाठक पर निर्भर करता है कि वो रसपान तबियत से कर पाता है अथवा नहीं। अच्छा पाठक रस में तो डुबकी लगाता ही है, काव्य के अन्य महीन तत्वों को भी खोजता है। क्योंकि ऐसा कदापि नहीं है कि महज़ सरस काव्य ही काव्य की कसौटी पर खरा उतरता है। काव्य में अन्य आवश्यक तत्वों का भी होना लाज़िमी होता है। जैसे- अलंकार, शब्दार्थ आदि। इन सबका होना ही कविता को उत्कृष्ट और पूर्ण बनाता है। किंतु फिर भी इन सब में रस ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है। उत्कृष्ट कविताओं के लिए पाठक को अत्युत्कृष्ट होना आवश्यक है। वरना कवि और कविता के साथ न्याय नहीं हो पाएगा।
कवि द्वारा कविता में लिखा गया भाव-विवेचन उसके तात्कालिक मानसिक उद्वेलन का अंज़ाम होता है। वह अपने आस-पास बिखरे बेतरतीब पाषाण खंडों को उत्कृष्ट शब्दों की छैनियों से तराश कर सुघड़ और मूर्त रूप देता है। जो अनायास ही काव्य प्रेमियों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं।
ये सब उसके हृदय में तत्क्षण उठ रही कोमलातीत संवेदनाओं का विस्तार है जो ग़मों अथवा ख़ुशियों की पुरवाई के स्पर्श करते ही चक्षुओं के नीर और लबों की तबस्सुम की भाँति बाहर छलक पड़ता है।
कवि के मन के भाव उसके अंतर्मन में निहित महीन से महीन विचारों के रेशों का वितान है, जो लाव का स्वरूप लेकर प्रकट होता है। जिस प्रकार भूमि के भीतर बोया गया बीज़ जब अंकुरित होता है तो बाहर निकलने के प्रयास में वह पूरा जतन करते हुए मिट्टी को चीरता हुआ अपने मनोरथ में सफल हो बाहरी वायु के सम्पर्क आता है और फिर विशाल दरख़्त या नई फ़सल का भविष्य नियत करता है। उसी प्रकार कवि की अटकलें एक-एक शब्द में पिरोई जाकर शब्दों द्वारा वाक्यों से उसके भीतरी भावों को जीवंत कर देती हैं। जिन्हें ग्रहण कर पाठक इहलोक से परलोक के सुख का अनुभव करता है।
प्रत्येक उद्यम कुछ न कुछ प्रतिफल अवश्य देता है। कई दफ़ा निर्धारित लक्ष्य के लिए प्रयास करते हुए भी सफलता नहीं मिलती है। किंतु वही असफलता अगले यत्न में सफलता का पथ-प्रशस्त कर जाती है।
दूसरे शब्दों में कवि की संवेदनाएँ एक प्रकार से सामुद्रिक ज्वार का विस्पोटन हैं जो उसकी लेखनी की स्याही से छिटककर पन्नों पर बिखर जाती हैं। यही बिखरा हुआ असबाब पाठकों के लिए भोजन, पानी बन जाता है। हर सहृदय पाठक की बुभुक्षा और पिपासा कवि द्वारा परोसा गया यही असबाब शांत करता है। कुछेक के मन को कवि द्वारा किया गया यह प्रयास भी शांत नहीं कर पाता।
इसका तात्पर्य यह नहीं निकाला जा सकता कि कवि के लिखने में कुछ छूट गया है या कमी रह गई है। उसने तो अपनी तरफ से पूर्णतः सात्विक आहार परोसने का प्रयास किया। अब असात्विक आहार वाला व्यक्ति उससे तृप्त हो जाए, ये सदैव तो संभव नहीं हो सकता।
किंतु यही बिखरा हुआ स्याह रंग जब पाठकों के समक्ष जाता है तो अपने-अपने विवेकानुसार उसका लाभ लेता है। अर्थात् काव्य-पिपासु अपनी-अपनी जुगत से उस कविता का भिन्न अर्थ ग्रहण करए हुए रसास्वादन करता है। कई दफ़ा कविता का वास्तविक भाव छूट जाता है। ऐसे में भी कवि की सफलता ही मानी जाएगी। क्योंकि उसके द्वारा लिखी कविता का पाठक अन्यार्थ भी तो निकाल रहा होता है। ये कवि और कविता के लिए अतिरिक्त मुनाफ़ा है।
कवि जब किसी विषय पर कुछ लिखता है तो पाठक उन्हीं लिखे शब्दों में या उनके इर्द-ग़िर्द उसे तलाशता है, जो भाव कविता में कवि द्वारा लिखा गया है। अथवा कविता में उसके द्वारा बताए गए संकेतों तक पहुँचने की कोशिशें करता है और उन्हीं में फँसकर रह जाता है। उससे बाहर वह सोचने की हिमाक़त तलक़ नहीं करता, क्योंकि उनका मानना है कि कवि ने जो लिख दिया वही संपूर्ण है। किंतु अच्छा पाठक इससे इतर वितान में जाकर छूटी हुई रिक्तता को भरने के प्रयास में लगा रहता है।
तात्पर्य यह है कि कवि द्वारा लिखित उस कविता को पाठक किस भावार्थ में ग्रहण कर रहा है, यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। क्या वह कवि द्वारा लिखे गए संदेश तक को ही छूकर बैठ जाता है या उससे भी ज़्यादा ग़हराई में जाकर और भी कई सारे दृष्टिकोणों से देखने की कोशिशें करता है? जिस संदर्भ में कवि ने लिखा है उस भाव का मालूम होना तो लाज़िमी हो ही जाता है, किंतु पाठक यदि असाधारण बुद्धिलब्धि वाला है तो वह इतर अर्थों में भी देखने की कोशिश करेगा। यहाँ इतर से तात्पर्य कविता के एक से अधिक अर्थों से समझना चाहिए। इससे वो पाठक तो प्रतिभाशाली माना ही जाएगा, साथ ही कवि की असाधारणता भी मालूम चलती है। मेरा मानना यह है कि पाठक को चाहिए कि वह अनेकार्थ में पहुँचे। नई कविता के दौर में कवि कई बिम्बों को समेटते हुए कविता को भावबद्ध करता है। ध्यान रहे मैं भावबद्ध कह रहा हूँ शब्दबद्ध नहीं। कविता में भाव सबसे महत्वपूर्ण है। रस भावों के सबसे नज़दीक वाली कुर्सी पर बैठने वाले तत्व है। किंतु ये भी सही है कि उस विशिष्ट या साधारण भाव का निर्माण क्रमशः उत्कृष्ट या सामान्य शब्दों से निर्मित होता है। भाव कविता का आत्मा होता है। वह भाव ही होता है जो सहृदय पाठक को भीतर से आंदोलित करता रहता है। कविता वही सार्थक है जिसे पढ़कर पाठक उसी वातावरण में विचरण करने लगे जिसके लिए कवि ने कविता रची। अथवा फिर स्वयं पाठक इतर अर्थ ग्रहण कर वहाँ खो जाए जिस अर्थ में वो भावार्थ ग्रहण करता है। उत्कृष्ट कविता पाठक को भाव-विभोर तो करती ही है, मष्तिष्क में रक्त का सहज प्रवाह का सा प्रभाव भी डालती है।
उक्त विश्लेषण का सार ये समझें कि कोई ज़रूरी नहीं हरेक पाठक का भावार्थ ग्रहण मेल खाए। अथवा ये भी ज़रूरी नहीं कि कविता के प्रति उनके भावात्मक बोध का नज़रिया एक सा हो। जिस प्रकार किसी एक विषय पर दो या इससे अधिक व्यक्तियों का मत एक नहीं हो सकता। पाठक के साथ भी यही हश्र होता है। जितनी अधिक ग़हराई में ले जाए वही कविता उत्कृष्ट समझनी चाहिए। वरना तो आज साहित्य के नाम पर फुटकल रचनाओं की भी बेशुमार भरमार है।
कवि स्वयं कविता करते समय कभी ये नहीं सोचता होगा कि उसकी कविता कितने अर्थों में रची जा रही है। वह जिस विषय को लेकर कविता करता है उसका दृष्टिकोण उसी पर केंद्रित होता है। ये अनेकार्थ तय करना तो पाठक के अतिरिक्त बौद्धिक कौशल का परिणाम है। जिससे उस पाठक की विशेष बुद्धिलब्धि के साथ-साथ कवि की भी विशिष्ट कौशल क्षमता को दर्शाता है तथा उसे विशिष्ट कवियों की क़तार में खड़ा करता है।
यहाँ ये बताना आवश्यक है कि किसी घटना प्रधान, पौराणिक अथवा ऐतिहासिक कविताओं के लिए ज़रूरी नहीं अनेकार्थ हों। किंतु ये पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता। ऐसा हो भी सकता है। परंतु उक्त विषयों पर लिखी कविताएँ उसी अर्थ में पढ़ी जाएँ तो ज़्यादा सार्थक होंगी। ऐतिहासिक कविताओं में भी वही कवि, सफल कवि कहा जाएगा जिसने बिम्ब, अलंकार, शब्दगाम्भीर्य और अपनी उत्कृष्ट शिल्प-शैली के प्रयोग द्वारा पाठक को बरबस बाँधने की ताक़त रख छोड़ी हो।
उक्त सारे विवरण में कवि से अधिक पाठक का इम्तिहान ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। यहाँ पर पाठक की बुद्धिलब्धि का भी स्तर पता चलेगा। औसत बुद्धिलब्धि वाला पाठक कविता के शाब्दिक अर्थ में फँसकर कविता का वहीं पर दम घोट देता है। परिणाम यह होता कि कवि की कविता भी तड़फड़ाकर मर जाती है। ऐसे पाठक को अनुपयुक्त पाठक की श्रेणी में डाला जा सकता है। उसके लिए अच्छी कविता भी बोझिल हो जाती है। किंतु यदि वही कविता असाधारण बुद्धिलब्धि वाले पाठक के हाथों में पड़े तो वह सद्गति पा जाती है। वह कविता के साथ न्याय करता है। उसे स्वीट्जरलैंड के मनोविज्ञानिक हरमन रोर्शा के प्रसिद्ध स्याही धब्बा परीक्षण की तरह एक ही धब्बे में अनेक प्रतिबिम्ब की भाँति कविता में भी कई बिम्ब नज़र आ जाते हैं। वह सकारात्मकता की ओर अग्रसर होते हुए अनेकार्थ खोजेगा। वह उसमें काव्य के लिए निर्धारित रसों के सरोवर के पानी का भी आचमन करना चाहेगा। अलंकारों की ज़ानिब भी दृष्टि डालेगा। कविता के भावार्थ से भी प्रभावित होगा।
इसके विपरीत औसत बुद्धिलब्धि वाले पाठक को रोर्शा के वही स्याही के धब्बे अस्पष्ट नज़र आएँगे। यदि किंचित् स्पष्ट भी होते हैं तो वह अधिकांशतः नकारात्मकता को अपनाएगा तथा वही कविता उसे असहजता महसूस कराएगी। वह शब्दिकार्थ से आगे नहीं बढ़ पाएगा। उसे कविता के वास्तविक मापन में असफलता ही हाथ लगेगी।
वही कविता यदि असाधारण बुद्धिलब्धि वाले पाठक को भी असहज लगे अथवा उसे भी अस्पष्ट नज़र आए तो कविता पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो स्वाभाविक है। साथ ही साथ कवि और कविता भी उत्कृष्टता के स्तर में औसत ही माने जाएँगे।
ग़हराई का भाव कविता में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। ये ग़हराई ताज़महल का बाह्य सौंदर्य नहीं उसके नींव के पत्थर की द्योतक है जो अदृश्य है किंतु महत्ता में प्रथम स्थान पर है और उसे ही विशिष्ट समझना चाहिए। नींव का पत्थर ही इमारत की विशालता और सौंदर्य की तक़दीर है। मजबूत नींव वाली इमारत, इमारत के लिए लंबी रेस के घोड़े के सदृश है जो उसका भविष्य मुद्दतों तलक़ सुनिश्चित करता है। कविता में भी अर्थगाम्भीर्य का होना उसको कालजयी कर देता है। बग़ैर अर्थगाम्भीर्य के कविता रेत का महल तथा कागज़ की नाव है।
‘बिहारी सतसई’ का नज़ीर यदि लें तो पाएँगे कि उन्होंने अपने दोहों के लिए कभी भी इतने अधिक भावार्थ सोचकर नहीं लिखे होंगे जो आज हमारे सामने हैं। ये पाठकों और कविता के आलोचकों की उपलब्धि ही है, जिन्होंने सर्तक बिहारी के हरेक दोहे के शतकाधिक अर्थान्वेषण किए। यही अर्थगाम्भीर्य है जो कवि को अमर और ‘सतसई’ को कालजयी कर गया। बिहारी के इस दोहे के तो आलोचकों ने २७२ अर्थ खोज निकाले हैं-
‘नहि पराग नहि मधुर मधु, नहि विकास इहि काल।
अली कली ही सो बंध्यो, आगे कौन हवाल।।’
इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि बिहारी प्रतिभा में धनाढ्य थे। ये भी नितांत सच है कि उन्होंने अपने दोहों में ‘गागर में सागर’ भरा। निश्चय ही वे ‘सतसई’ को एकाधिक अर्थ में लिखे होंगे। वरना अन्य अधिकांश कवियों को छोड़कर उन्हीं के सृजन में इतने सारे अर्थ कैसे हैं? किसी और के में क्यों नहीं? किंतु ये भी द्रष्टव्य है कि उन्होंने कभी ये अनुमान नहीं लगाया होगा कि उनकी सोच से परे भी और अनेक अर्थ हो सकते हैं। ये आलोचकों की विलक्षण बौद्धिक क्षमता का परिणाम है कि बिहारी को अन्य कवियों से अतिरिक्त विलक्षण माना जाता है।
अच्छी कविता गंगौत्री की मानिंद है। जिसमें पाठक डुबकी लगाकर परमानन्द का अनुभव करता है। जिसे पढ़ते हुए दुःखी और रुग्ण व्यक्ति को कुछ क्षण के लिए ही सही, मग़र अपनी पीड़ा का भान नहीं रहता। जैसे शारीरिक या मानसिक बीमार व्यक्ति पर दवा भले ही असर कम करे, किंतु चिकित्सक द्वारा दी गई सांत्वना ज़्यादा हिम्मत दे जाती है। चिकित्सक के मीठे सकारात्मक बोल बीमार के नकारात्मक दृष्टिकोण को सकारात्मक करने में जादुई प्रभाव डालते हैं। इससे कभी-कभी मरणासन्न व्यक्ति भी उठ खड़ा होता है। अच्छी कविता भी इसी तरह पाठक की उत्कट जिज्ञासा को शांत करती है। यदि चिकित्सक निर्दय अथवा व्यावहारशील नहीं है तो सामान्य बीमार व्यक्ति को भी अपने निष्ठुर बोलों से गंभीर तनाव में डाल सकता है।
बोझिल कविता भी स्वस्थ पाठक को मानसिक तनाव दे सकती है तथा भावाभिसिक्त कविता बीमार में सकारात्मक ऊर्जा भरने का काम कर जाती है। किसी भी चिकित्सक का स्वभाव यदि रोगी के प्रति दरिद्र अथवा अव्यावहारिक है तो उसे चिकित्सा करने का अधिकार नहीं है। अतः उसे बीमार के स्वास्थ्य लाभार्थ अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना चाहिए। उसकी कोशिश ये होनी चाहिए कि रुग्ण व्यक्ति को उसकी अपनी सकारात्मक सलाह द्वारा हिम्मत मिले।
कवि की कविता यदि भाव-पिपासु पाठक को संतुष्ट न करें अथवा उसके लिए वह कविता बोझिल बन जाए तो उसे भी उसी प्रकार कविता करनी त्याग देनी चाहिए। अथवा फिर कविता में मधुसिक्तता की डोज में बढ़ोतरी करना आरम्भ करना चाहिए। क्योंकि पाठकों से कविता के नाम पर छलने का उसे कोई अधिकार नहीं है। पाठक कवि और कविता का भविष्य तय करते हैं। पाठक भी कविता का मरीज़ होता है। यदि कोई कविता उसके अंतर्मन को तरबतर नहीं कर पाए तो वह उसे भी बीमार बना सकती है अथवा कविता पर से उसका मोह समाप्त भी कर सकती है। इस प्रकार पाठक बीमार, तथा धीरे-धीरे संख्या में कम होते चले जाएँगे एवं कविता के लिए निर्जनता जैसी समस्या उत्पन्न हो जाएगी। अतः कवि को अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए पाठकों के वर्तमान के साथ न्याय करना होगा। पाठक मतदाता के मानिंद होते हैं जो बेहतर कविता का निर्णय करते हैं। जिस प्रकार मतदाता चुनाव में बेहतर उम्मीदवारों को जिताकर उनके लिए भाग्यविधाता सिद्ध होते हैं एवं देश की सेवा के लिए योग्य प्रतिनिधि देते हैं। सहृदय पाठक भी अपने भावात्मक और क्रियात्मक कौशल द्वारा कविता के विशेषत्व का निर्धारण करते हैं।
कविता में उसके सभी आवश्यक तत्वों की मौज़ूदगी उसकी सफलता के लिए अनिवार्य आवश्यकता है। जिनमें उक्त वर्णित रस का समायोजन सर्वाधिक लाज़िमी है। इसके अतिरिक्त अलंकार, भाव सौंदर्य, विचार सौंदर्य, नाद सौंदर्य और अप्रस्तुत-योजना का सौंदर्य कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। उक्ताभिसिक्त कविता निश्चय पाठक को लुभाएगी। भाव सौंदर्य कविता का प्राण है। इस एक तत्व के बिना भी कविता निरर्थक है। भाव सीधे पाठक के हृदय को छूते हैं। ये स्त्री की लज्जा के सदृश है। लज्जाशीला स्त्री सबके मनों को बरबस ही भा जाती है। वो परिवार अथवा समाज में सबको आकर्षित तो करती है। प्रशंसा और सम्मान की पात्र भी बनती है। पास-पड़ोस और दूर-दूर तक उसके इस गुण की चर्चा होती है। सकारात्मक ख़ूबियों के सबब जिस स्त्री की चर्चा होने लगे वह स्त्री सबका आदर तथा स्नेह पा ही जाती है।
कविता में भाव भी स्त्री के इसी गुण के सदृश है। बग़ैर भाव सौंदर्य के कविता लज्जाहीना स्त्री सी उपमा पाती है। इस प्रकार कविता के उक्त तत्वों के लिए सार स्वरूप यह कहा जा सकता है कि इनके बिना कविता नग्नस्वरूपा है, जिसकी कोई क़द्र नहीं होती। अर्थात् ऐसी कविता त्याज्य है। सलज्ज पाठक उससे नज़र फेर लेंगे।
यद्यपि कविता के उक्त तत्व कविता की अत्यावश्यक कसौटी हैं। किंतु यदि कविता समाज के लिए प्रेरक है तो वह अतिरिक्त बलवती हो जाती है। कविता के मूल में समाज के हितार्थ क्रांतिकारी संदेश का होना समाज को अचेतनावस्था से जाग्रत करने का काम करता है। समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाना ही कविता की पहली शर्त होनी चाहिए। यदि ऐसा है तो कवि अपनी ज़िम्मेदारी को पूर्ण कर देता है, तथा फिर पाठक की जवाबदेही हो जाती है कि कविता के मर्म में छिपे संदेश को जन-जन तक पहुँचाकर उन्हें जाग्रत करे। अच्छा पाठक कविता के भाव के मर्म को केवल स्वयं तक ही सीमित नहीं रखता, वह उसके निहितार्थ को आगे तलक़ बढ़ाएगा। उत्कृष्ट कविता एक चुम्बक के मानिंद होती है, तो पाठक लोहे के बुरादे के समान। अर्थात् कविता का भाव सौंदर्य यदि उत्कृष्ट है तो सुधीजन अपने आप उसकी ओर खिंचे चले आते हैं।
या यूँ समझें कि गोया अतिरिक्त मधुसिक्त कुसुम अलियों को बलात् आकर्षित करता है, और नवयौवना स्त्री नीरस जन को भी सहज ही पानी-पानी कर देती है। कविता का भाव सौंदर्य भी कुछ ऐसा ही है। सहृदय पाठक उसमें इस क़दर डूबता है कि उस पर ख़ुमार सा चढ़ जाता है। कविता के लिए अत्यंत उत्सुक पाठक उसके मधु सरोवर में इस क़दर समाता है कि वह कविता से बाहर ही नहीं आ पाता। पाठक के लिए कविता प्रेमिका के जैसे है। वह कालिदास के मेघदूत की यक्षिणी के सदृश है, तथा स्वयं पाठक यक्ष के समान। जिसे बिना प्रिया के कुछ महीने बिताना भी दूभर हो जाता है। मेघों के माध्यम से प्रिया को संदेश भेजना यक्ष का सृष्टि में उसके प्रति अनन्य प्रेम का द्योतक है। पाठक भी कविता के वियोग में टूट सा जाता है। वह कविता को लेकर पागल प्रेमी जैसा हो जाता है। उसे उसके सिवाय कुछ भी नहीं सूझता। कविता के वियोग में पाठक दुःखी रहता है। एक शराबी की मानिंद उसे सदैव उत्कृष्ट कविताओं की तलब रहती है। वह दिन-रात उसी से वाबस्ता सोचता रहता है। बग़ैर कविता का रसपान किए उसे चैन नहीं मिलता है। उसके भीतर अनंत ख़्याल पलते रहते हैं।
उक्त समस्त तलब उत्कृष्ट कविताओं के ही परिणाम हैं। पाठक उनके रस और भावार्थ के ताक़त के फलस्वरूप हठात् उनसे बँधा रहता है। कविता में भावार्थ ही है जो पाठक को हाथी की भाँति मदमस्त बनाए रखता है।
कविता के भावार्थ-ग्रहण के समय पाठक को चाहिए कि वह कूपमंडूक न बने। उसके भावनात्मक पक्ष को आकाशीय वितानता में जाकर निष्कर्ष पर पहुँचे। पाठक द्वारा कविता के महज़ एक पक्ष पर दृष्टिपात करने से कविता के साथ तो नाइंसाफ़ी है ही, तत्संबंधित कवि का भी अनादर है।
कविता का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु, जो कविता की अत्युत्कृष्टता में अत्यंत सहायक है, वह है कविता में कसावट का होना। कविता में इस विशेषण की अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए कविता का सृजन करना लाभप्रद रहता है। इस हेतु कवि को चाहिए कि वह समुचित और भावगाम्भीर्य युक्त शब्दों का अधिक प्रयोग करे। इसके अतिरिक्त भाषा में सहजता और सौम्यता भी हो। अनावश्यक वितानता से बचे। क्योंकि ये ही कसावट कविता में ‘गागर में सागर’ का चमत्कार उत्पन्न करती है। विवरणात्मक कविता से कवि को परहेज़ करना चाहिए। ये पाठक के लिए बोझिल साबित हो सकती है।
ग़ौरतलब है कि, ज़रूरी नहीं जिस परिप्रेक्ष्य में कविता का सृजन कवि ने किया है, पाठक भी वही निष्कर्ष निकाले। अच्छा पाठक आकाशीय विशालता में जाकर कविता के अनेक भावों को खोजने का यत्न करेगा। उसे हरमन रोर्शा के उक्त स्याही धब्बे परीक्षण की भाँति आकाशीय रिक्तता भी दिख सकती है। उसे तारों से अटा पड़ा आकाश भी नज़र आ सकता है। पाठक यदि अत्यंत प्रतिभाशाली है तो कविता में उसे सूर्य और चन्द्र जैसी अद्वितीय आकृतियों के सम भाव भी दृष्टिगत हो सकता है, अथवा उसे महासागर के पानी के बज़ाय, उसके भीतर अकूत मात्रा में छिपे रत्न भी दिखलाई दे सकते हैं। तात्पर्य यह है कि अच्छा पाठक हर्फ़ दर हर्फ़ नहीं चल सकता। वह कविता के मूल भाव के अतिरिक्त अन्यार्थ अन्वेषण भी करेगा।
संस्कृत साहित्य में मम्मट ने अपने ‘काव्यशास्त्र’ में छ: काव्य प्रयोजन निर्धारित किए हैं, जो विश्व की समस्त भाषाओं के काव्य के लिए भी उतना ही उपयोगी और समीचीन है जितना संस्कृत में रचित काव्यों के लिए। ख़ासकर हिंदी भाषा के काव्य को तो संस्कृत से बिल्कुल भी विलग करके नहीं देखा जा सकता। इस प्रकार निम्न छः प्रयोजन ही कवि को काव्य रचना के लिए अभिप्रेरित करते हैं-
‘काव्यं यशसे अर्थकृते, व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परनिर्वृत्तये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥’
अर्थात् काव्य यश और धन के लिये होता है। इससे लोक-व्यवहार की शिक्षा मिलती है। अमंगल दूर होता है। काव्य से परम शान्ति मिलती है और कविता से कान्ता के समान उपदेश ग्रहण करने का अवसर मिलता है।
अतः यदि कवि को काव्य-क्रीड़ांगन में लंबी रेस का अश्व सिद्ध होना है तो उक्त समस्त बातों को प्रयोग में लाना चाहिए। उसे पाठक की भावनाओं से न खेलते हुए, उस पर रहम कर मानसिक शांति में सहयोग करना चाहिए। पाठक ही है जो कविता को निम्नता तथा उच्चता की कसौटी में सही ढंग से तोल सकता है। कविता उसके लिए संजीवनी है। इसलिए कवि को दूषित भोजन के समान अतात्त्विक कविता परोस कर उसे बीमार करने की छूट नहीं हो सकती। कवि को प्रयास करना चाहिए कि अब तक बोझिल कविताएँ पढ़-पढ़कर बीमार हो चुके पाठकों को पुनः स्वस्थ करे तथा आगे भी पाठकों के लिए पौष्टिक आहार सम कविताएँ अनवरत लिखकर आरोग्य प्रदान करे।